roza kyu rakha jata hai : रोज़ा क्यों रखा जाता है | roza farz kab hua

क्या आपको पता है की रमज़़ान में रोज़ा क्यों रखा जाता है, रोज़े की शुरुआत कब हुई और रोज़ा कब फ़र्ज़ हुआ। हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम माहे रमजान में क्या अमल करते थे।

रोजे़ को अरबी में “सोम” कहते हैं जिसका मअ़ना हैं रुकना और चुप रहना कुरआन मजीद में रोजे़ को सब्र से भी पुकारा गया है, जिसका खुलासा यह है इंसान अपने आप को उन तमाम चीज़ों से रोक ले जो उसको जिंसी और नफ्सानी ख्वाहिशों की तरफ लेकर जाती हैं |

रोज़ा बड़ी पुरानी इबादत है : Roza badi purani Ibadat hai:-

जैसा कि क़ुरआन मजीद में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने इरशाद फरमाया रोजे़ तुम पर फर्ज़ किए गए, जिस तरह तुमसे पहले की उम्मतों पर किए गए थे, आदम अलैहिस्सलाम से लेकर ईसा अलैहिस्सलाम तक जितने भी अंबिया तशरीफ लाए उन तमाम पर रोजे़ फर्ज़ थे, बस यह है कि वह रोजे़ हमारे जैसे रोजे़ नहीं थे ,चुनांचे आदम अलैहिस्सलाम पर हर महीने चांद की 13 14 15 तारीख के रोजे़ फर्ज़ थे और मूसा अलैहिस्सलाम पर यौमे आशूरा यानी 10 मोहर्रम का रोज़ा फर्ज़ था,और हर हफ्ते में हफ्ते के दिन (सैटरडे) का रोज़ा फर्ज़ था | और ईसा अलैहिस्सलाम पर रमज़ान के रोजे़ फर्ज़ थे |

Pehle ke Rozo or hamare rozo me farq : पहले के रोज़े और हमारे रोज़ों में फर्क़

हमारे रोज़ों में वक्त कम कर दिया गया, पहले की उम्मतों पर आठ पहर का रोज़ा रखना फर्ज़ था, रात को सोने से पहले खाने-पीने की इजाज़त थी, लेकिन जैसे ही रात को सो गए तो रोज़ा शुरू हो गया फिर दूसरे दिन सूरज के डूबने तक रोज़ा चलता था, जब हमारे रोजे़ शुरू हुए तो हमारे रोजे़ भी आठ पहर के हुआ करते थे लेकिन अल्लाह तआ़ला ने मुह़म्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम के सदके़ में रात को रोज़ों में से कम कर दिया |

इस पर मुह़द्दिसीन ने एक किसान सह़ाबी का वाक़िया पेश किया है कि एक मर्तबा उन सहाबी ने आठ पहर वाला रोज़ा रखा हुआ था, दिनभर उन्होंने खेतों पर काम किया शाम को जब वह घर आए तो उन्होंने कहा खाना तैयार करो, घर वाले बोले आप आराम फरमाएं हम खाना तैयार करते हैं, वह आराम फरमाने लगे कि उनकी आंख लग गई, अब चूँकि आठ पहर वाले रोज़े में यह हुकुम था की आंख लगते ही दूसरा रोज़ा शुरू हो जाता है तो अब अगले दिन यह सह़ाबी भूख से लड़खड़ाने लगे क्योंकि एक तो मेहनतकश आदमी और ऊपर से 2 दिन का रोज़ा तो नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम ने उन सभी से पूछा कि क्या बात है तो उन सह़ाबी ने पूरा वाक्य बताया, फिर अल्लाह तआ़ला की तरफ से यह छूट बल्कि यह हुक्म नाज़िल हो गया कि रात रोज़ों से निकल गई और अब रोज़े का वक्त फज्र का वक़्त शुरू होने से शुरू होगा |

Roze ka maqsad : रोजे़ का मक़सद:-

अल्लाह तआ़ला ने कुरआन मजीद में इरशाद फरमाया रोज़ा रखने का मक़सद परहेज़गारी और तक़्वे को हासिल करना है, रोजे़ में नफ्स पर सख़्ती की जाती है और वह तमाम चीजें जो और दिनों में खाना जायज़ हैं, रमज़ान में उन से रोक दिया जाता है, इससे अपनी ख्वाहिशों पर काबू पाने की ताकत हासिल होती है और हराम से बचने की ताकत हासिल होती है नफ़्स और ख्वाहिशों पर काबू पाना यह वह कामयाबी है जिसके ज़रिए इंसान बहुत से गुनाहों से बचता है, अगर किसी इंसान को गंदे खयालात आते हैं या उसका दिमाग गंदी गंदी बातों से भरा हुआ है और वह शख़्स डर रहा है कि कोई गलत काम ना कर बैठे तो अगर वह रोज़ा रखता है तो उसकी ख्वाहिश मर जाती है और वह गुनाहों से बच जाता है यूं ही अगर कोई शख्स रोज़ा रखता है तो वह गलत निगाह नहीं डालता झूठ से परहेज़ करता है और हराम कामों से परहेज़ करता है, हराम काम और झूठ ग़ीबत चुग़ली से बचना इससे बड़ी कामयाबी और क्या हो सकती है, बहुत से ऐसे औलियाए इकराम गुज़रे हैं जो हफ़्ते में 2 दिन का रोज़ा और ज़रूर रखते थे जिससे नफ़्स की ख्वाहिशों को रोकना बहुत आसान हो जाता था |

Roza kis par Farz hai : रोज़ा किस पर फर्ज़ है:-

तौह़ीद और रिसालत का इक़रार करने और तमाम ज़रूरियाते दीन पर ईमान लाने के बाद जिस तरह नमाज़ तमाम मुसलमानों पर फर्ज़ कर दी गई इसी तरह रोजे़ भी तमाम आ़क़िल(अक़्ल वाला) बालिग़ मर्द और औरत पर रोजे़ फर्ज़ कर दिए गए |

Roze Farz hone ki wajah : रोज़ा फर्ज़ होने की वजह:-

इस्लाम के अक्सर आ़माल किसी ना किसी वाक्ये की याद ताज़ा करने के लिए मुकर्रर किए गए हैं, जैसा कि इस्माई़ल अलैहिस्सलाम की वालिदा हज़रत हाजरा रज़िअल्लाहुतआ़ला अन्हा अपने बेटे के लिए पानी तलाश करने को सफा और मरवा के दरमियान चली थीं, तो उनका चलना अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त को बहुत पसंद आ गया और यही हाजरा रज़िअल्लाहुतआ़ला अन्हा की अदा से तमाम हाजियों पर सफा और मरवा के दरमियान चलना फर्ज़ हो गया, इसी तरह नबी ए करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम रमज़ान के कुछ दिनों तक ग़ारे हिरा में भूखे और प्यासे रहे और रात को अल्लाह तआ़ला की इबादत में मशग़ूल रहते थे, अल्लाह तआ़ला को अपने महबूब सल्लल्लाहु तआ़ला अलैही वसल्लम की इसी याद को ताज़ा करने के लिए रमज़ान के रोजे़ फर्ज़ फरमाए ताकि आप सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम की सुन्नत बाक़ी रहे |

Ramzan Me Hamare Nabi ke Amal : रमज़ान में हमारे नबी के अ़मल:-

उम्मुल मोमिनीन ह़ज़रत आ़यशा सिद्दीक़ा रज़िअल्लाहुतआ़ला अन्हा फरमाती हैं नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम के कामों में रमज़ान और ग़ैरे रमज़ान में तीन बातों का फर्क होता था |

पहला फर्क:-

पहला फर्क यह था कि नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम पूरे साल किसी भी महीने के रोजे़ पूरे नहीं रखते थे, लेकिन माहे रमज़ान के रोजे़ पूरे रखते थे| पीर या जुमेरात और किसी महीने के आधे रोजे़ रखते थे ,और शाबान के भी बहुत से रोजे़ रखते थे |

दूसरा फर्क:-

हज़रत आयशा सिद्दीक़ा रज़िअल्लाहुतआ़ला अन्हा फरमाती हैं, कि नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम रमज़ान के महीने में क़ुरान मजीद की तिलावत और महीनों से दोगुनी करते थे|आप खुद भी तिलावत करते थे और दूसरों से सुनते भी थे क़ुरान मजीद की तिलावत करना भी इबादत है और सुनना भी इबादत है और क़ुरान को देखना भी इबादत है | सुनने और पढ़ने पर तो नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम ने एक बराबर सवाब बताया है, फरमाया क़ुरान मजीद की तिलावत करने वाले को हर ह़र्फ पर 10 नेकिया मिलती हैं और सुनने वाले को भी 10 नेकिया मिलती हैं लेकिन खास नियत के साथ सुना जाए और अच्छी तरह बैठकर अदब के साथ सुना जाए |

तीसरा फर्क:-

हज़रत आयशा सिद्दीक़ा रज़िअल्लाहुतआ़ला अन्हा फरमाती हैं,नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम का तीसरा अ़मल यह था, कि रमज़ान के महीने में और दिनों से ज़्यादा सखी हो जाते थे, पूरे साल हुज़ूर सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम का यह अमल होता था, कि कोई भी सवाल करने वाला भिखारी आपके दरवाजे से खाली नहीं जाता था| जिस भिखारी की ज़रूरत आप पूरी कर सकते थे करते थे | लेकिन जिसकी मदद नहीं कर सकते थे तो उसकी सिफारिश कर देते थे यानी किसी ऐसे शख्स से कह देते थे जो उसकी ज़रूरत पूरी कर सके अब चुँकि नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम के कहने से किसी ने अगर नेकी की तो पहला सवाब तो हमारे नबी सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम को ही पहुंचा |

एक वाक़िया है कि एक शख़्स आपके दरवाज़े पर आया और आपसे कहने लगा कि मैं आपका मेहमान हूं आप मुझे खाना खिलाएं आपके पास खाना मयस्सर नहीं था, आप बारी-बारी बहुत से दरवाज़ों पर गए लेकिन कहीं भी खाना नहीं मिला | आप सल्लल्लाहु तअ़ला अ़लैही वसल्लम ने मजलिस में कहा कि कोई है जो मेरे मेहमान को खाना खिला दे| अबू तल्हा अंसारी उठे और कहा नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम मैं खाना खिलाता हूं, अबू तलहा रज़िअल्लाहुतआ़ला अन्हु घर गए और बीवी से पूछा खाने के लिए कुछ है बीवी ने कहा हां एक आदमी का खाना है या तुम खालो या मैं खालूं या फिर मेहमान को खिला दो बच्चे भी भूखे हैं अबू तल्हा ने कहा हुज़ूर का मेहमान है, अब उसे तो वापस नहीं कर सकते बच्चों को किसी तरह बहला कर सुला दो और खाना दस्तरख्वान पर रख दो और बहाने से चिराग़ को बुझा देना क्योंकि एक आदमी का खाना है और अखलाकी तौर पर मैं मेहमान के पास बैठूंगा और अंधेरे में मुंह चलाता रहूंगा, इस तरह मेहमान खाना खा लेगा और इस तरह मेहमान को अबू तलहा रज़िअल्लाहुतआ़लाअन्हु ने खाना खिलाया इस सहाबी की शान में क़ुरान मजीद में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने इरशाद फरमाया “वह अपनी जानों पर तरजीह देते हैं अगर चे उन पर फाका हो”यानी ये वह मुहाजिरीन है जिन पर चाहे खुद फाका गुज़रे लेकिन मेहमान खाली हाथ न जाए और नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम रमज़ान में तो इतने सख़ी होते थे जैसे के गर्मी के मौसम में सर्द हवा चलती हो

आयशा सिद्दीक़ा रज़िअल्लाहुतआ़लाअन्हा फरमाती हैं कि रमज़ान में तो नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम के फैज़ से कोई भी मैहरूम नहीं रहता था, हज़रत आयशा सिद्दीक़ा रज़िअल्लाहुतआ़ला अन्हा ने रमज़ान के यह तीन अ़मल बयान फरमाए हैं | जिन्हें नबीये करीम सल्लल्लाहु तआ़ला अ़लैही वसल्लम कसरत से करते थे |

इस पोस्ट को लिखने मैं या कहने में कोई गलती हो गई हो तो अल्लाह से दुआ है की वो सरकारे मदीना मुहम्मद मुस्तफा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सदके से गलती को माफ कर दे।

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